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स्ट्रोक दुनिया भर में मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण है, जिसके 16 मिलियन मामले दर्ज किए जाते हैं।1 यह दुनिया भर नए मामलों में तकरीबन 1.8 मिलियन का योगदान देता है। स्ट्रोक भारत में मृत्यु और रूग्णता का मुख्य कारण है। भारत में हर साल तकरीबन 0.69 मिलियन लोगों की मृत्यु स्ट्रोक के कारण होती है।

डाॅ मनीष श्रीवास्तव, हैड- इंटरवेंशनल न्युरोरेडियोलोजी, कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी अस्पताल, मुंबई ने बताया, ‘‘पिछले कुछ सालों में स्ट्रोक का बोझ लगातार बढ़ा है। स्ट्रोक न सिर्फ मरीज़ को बल्कि पूरे परिवार केा प्रभावित करता है। एक अध्ययन के मुताबिक हर साल स्ट्रोक के कारण होने वाली मौतों और अपंगता के कारण 116 मिलियन घण्टे का स्वस्थ जीवन बर्बाद हो जाता हैै।

ऐसे ही एक मामले के बारे में बताते हुए डाॅ श्रीवास्तव ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा, ‘‘एक 29 वर्षीय लड़के को गर्दन में दर्द के साथ अचानक स्ट्रोक के लक्षण शुरू हुए, जिसके बाद उसकी नज़र आंशिक रूप से चली गई। उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया और ब्रेन का एमआरआई स्कैन किया गया। जिसमें पता चला कि ब्रेन के सबसे मुख्य हिस्सों को खून पहुंचाने वाली रक्त वाहिका (बेसिलर आर्टरी) में ब्लाॅक के कारण मरीज़ को स्ट्रोक आया। एमआरआई के बाद मरीज़ की हालत बिगड़ती गई और वह बेहोश हो गया। जैसे ही वह अस्पताल पहुंचा, उसकी एमरजेन्सी एंडोवैस्कुलर सर्जरी (मैकेनिकल थ्रोम्बेक्टोमी) की गई और आर्टरी खोली गई। जिसके बाद मरीज़ धीरे धीरे ठीक होने लगा और फिर पूरी तरह से सामान्य हो गया। दो सप्ताह के बाद आर्टरी के डाइसेक्टेड सेगमेन्ट में फ्लो डाइवर्टर डालकर मरीज़ का इलाज किया गया ताकि उसे फिर से स्ट्रोक न आए। अब वह सामान्य जीवन जी रहा है।’’

जीवनशैली से जुड़ी आदतें जैसे धूम्रपान, बहुत ज़्यादा शराब का सेवन, ड्रग्स जैसे कोकेन का सेवन, कम व्यायाम आदि स्ट्रोक के मुख्य कारण हैं। हाइपरटेंशन, दिल की बीमारियों, मोटापे के मरीज़ों और ऐसे लोगों में स्ट्रोक की संभावना अधिक होती है जिनके परिवार में इसका इतिहास हो। ऐसे लोगों को अपने स्वास्थ्य पर निगरानी रखनी चाहिए। स्ट्रोक एक एमरजेन्सी है जिसमें शुरूआती कुछ घण्टों के अंदर ही मरीज़ को इलाज मिलना बहुत ज़रूरी होता है। इलाज में देरी के परिणाम ऐसे हो सकते हैं जो मरीज़ को आजीवन अपंग बना देते है और कुछ मामलों में तो मरीज़ की जान तक चली जाती है।

‘‘यह बेहद महत्वपूर्ण है कि लोगों को स्ट्रोक के लक्षणों और ऐसे मामले में जल्द से जल्द उपचार के बारे में जागरुक बनाया जाए। जितनी जल्दी मरीज़ को इलाज मिलता है, उतना ही बेहतर होता है। अगर किसी व्यक्ति को बोलने, समझने, बाजु या टांग हिलाने में परेशानी महसूस हो तो उसे तुरंत अस्पताल जाना चाहिए। कभी कभी ट्रांज़िएन्ट इश्केमिक अटैक के मामले में लक्षण कुछ देर बाद अपने आप चलते जाते हैं। अगर लक्षण चले भी जाएं तो मरीज़ को तंुरत अपनी जांच करानी चाहिए।’’ डाॅ मनीष ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा।

काफी प्रयासों के बाद 4.5 घण्टे की अवधि में क्लाॅट घोलने वाली दवाएं देकर इलाज के तरीके विकसित किए गए हैं। हालांकि नई तकनीकों की खोज जारी है, ताकि मरीज़ के लिए स्ट्रोक के विपरीत प्रभाव कम से कम हों और इलाज के परिणामों को बेहतर बनाया जा सके। पिछले कुछ सालों से बड़े क्लाॅट्स के मामले में मैकेनिकल थ्र्रोम्बेक्टोमी उपचार का प्राथमिक तरीका बन गया है, इस तरह के क्लाॅट एक्यूट इश्केमिक स्ट्रोक का कारण बनते हैं।

मैकेनिकल थ्रोम्बेक्टोमी के बारे में बात करते हुए डाॅ मनीष ने कहा, ‘‘मैकेनिकल थ्रोम्बेक्टोमी को बड़े क्लाॅट्स के इलाज के लिए अपनाया जा रहा है क्योंकि इससे क्लाॅट पूरी तरह से घुल जाता है और मरीज़ को इलाज के लिए थोड़ा ज़्यादा समय भी मिलता है। यह प्रक्रिया लक्षण शुरू होने के 0 से 24 घण्टे के अंदर की जा सकती है, फिर चाहे मरीज़ को अन्य उपचार दिया गया हो या नहीं। मैकेनिकल थ्रोम्बेक्टोमी के द्वारा उपचार में विशेष रेडियोग्राफी उपकरणों की मदद से क्लाॅट की लोकेशन का पता लगाया जाता है और फिर इसे निकाल दिया जाता है। ताकि ब्रेन को रक्त की आपूर्ति फिर से सामान्य रूप से होने लगे।’’

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