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    बुद्ध और महावीर, कृष्ण और जीसस, मुहम्मद, लाओत्से, रजनीश, मतलब सभी पुरुष ही! तो किसी स्त्री ने बुद्धत्व की खबर दुनिया तक क्यों नहीं पहुंचाई?  इस संबंध में बहुत-सी बातें समझनी पड़ेंगी। एक तो स्त्री और पुरुष बुनियादी रूप से भिन्न हैं। भिन्न से अर्थ ऊंचे-नीचे हैं, ऐसा नहीं है; दोनों समान हैं, लेकिन विपरीत हैं। ऊंचा नीचा कोई भी नहीं है। दोनों समान हैं; लेकिन विपरीत ध्रुव हैं। एक-दूसरे से बिलकुल विपरीत हैं। स्त्रियां भी बुद्धत्व को उपलब्ध हुई हैं, लेकिन वे गुरु नहीं बन सकीं।  गुरु बनना उनके लिए वैसे ही असंभव है, जैसे पुरुष को मां बनना असंभव है। 
    कोई नहीं पूछता कि अब तक कोई पुरुष मां क्यों नहीं बन सका?  बनने की कोई बात ही नहीं है। पुरुष पिता बन सकता है, मां नहीं बन सकता। स्त्री शिष्य बन सकती है, गुरु नहीं बन सकती है। यही स्वाभाविक है, और इससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है। इसी अंतर्मुखता के कारण स्त्री बहुत क्षुद्र मालूम पड़ती है, निम्न मालूम पड़ती है। 
उसके जो सोच-विचार के ढंग हैं, वह संकीर्ण, नैरो मालूम पड़ते हैं। पर इसमें उसका कोई कसूर नहीं है। उसकी उत्सुकता अपने पड़ोस में, अपने घर में, अपने बच्चे में ऐसी होती है। पुरुष की उत्सुकता न पड़ोस में होती है ज्यादा; न बच्चों में होती है, न घर में होती है। वह स्त्री के दबाव में इनमें उत्सुकता लेता है। 
   उसकी उत्सुकता होती है--वियतनाम में क्या हो रहा है, रूस में क्या हो रहा है, अमरीका में क्या हो रहा है? दूर, विस्तीर्ण। इसमें कुछ गुण नहीं है। बस, मैं यह कह रहा हूं, यह स्वभाव है, यह तथ्य है।  स्त्री को फिकर होती है, पड़ोस की स्त्री कैसे कपड़े पहने हुए है, और वह इसलिए फिकर होती है कि उसके कपड़े से वह अपने को तोल रही है। स्त्री अपने से केंद्रित है। और इसलिए कभी-कभी उसे हैरानी होती है पुरुषों की बातें सुनकर कि ए कहां की बातें कर रहे हैं! वियतनाम से क्या लेना-देना? दिल्ली में क्या हो रहा है, इसमें क्या अर्थ है? ए फिजूल की बातें हैं। और इसलिए कोई पुरुष, स्त्री से बातचीत में रस नहीं लेता। क्योंकि स्त्री की बातचीत क्षुद्र होती है, सीमित होती है।   इसलिए स्त्रियां गुरु नहीं हो सकीं। और जब भी स्त्रियां गुरु होने की कोशिश करती हैं....  तो बहुत क्षुद्र और साधारण गुरु हो पाती हैं। और बड़ी हैरानी की बात है कि अगर स्त्री गुरुओं के पास भी लोग जाते हैं, तो समझना चाहिए कि संसार से छुटकारा बहुत मुश्किल है। क्योंकि एक स्त्री का गुरु होना मुश्किल है, और हो तो बहुत साधारण कोटि की होनेवाली है। और फिर उसके भी तो शिष्य अगर लोग बन जाते हैं, तो फिर बहुत अड़चन है--बहुत अड़चन है।


- ओशो 
   (By- Zorba The Buddha)


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