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मुम्बई। शनिवार 15 अप्रैल को लेखक व फिल्म निर्देशक डॉ राजेन्द्र संजय द्वारा लिखित पुस्तक 'भोजपुरी फिल्मों का इतिहास' का विमोचन अंधेरी पश्चिम स्थित एक सभागृह में सम्पन्न हुआ। उसी अवसर पर फिल्म जगत के लोगों सहित साहित्य व पत्रकारिता से जुड़े लोगों की उपस्थिति रही। कार्यक्रम में कवि देवमणि पांडेय, अभिनेत्री लिली पटेल, अभिनेता लिनेश फणसे, कवि गीतकार रासबिहारी पांडेय, फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज, आरजे कीर्ति प्रकाश विशेष रूप से उपस्थित रहे।
 पुस्तक के बारे में बता दें कि डॉ. राजेन्द्र संजय लिखित पुस्तक 'भोजपुरी फिल्मों का इतिहास' बहुत ही आकर्षक है। भोजपुरी प्रांतीय बोली होकर भी अन्तर्राष्ट्रीय मंच को छूती है क्योंकि विश्व के अधिकतर देशों में इसके बोलने वाले मौजूद हैं। हालाँकि पहली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ाइबो' सन 1962 में बनी थी। लेकिन भोजपुरी बोली ने पहली भारतीय बोलती फिल्म 'आलम आरा' में ही अपना चकमक प्रभाव दिखा दिया था जो सन 1931 में बनी थी, जिसमें भोजपुरी गीत 'दरस बिन मोरे हैं तरसे नैन, प्यारे मुखड़ा दिखा जा मोहे' ने दर्शकों का मन मोह लिया था। इस फिल्म 'आलम आरा' में गवई पात्रों के मुख से वार्तालाप घरेलू रूप में भोजपुरी बोली में ही प्रतिबिम्बित हुआ जो एक अन्यतम उपलब्धि थी। इस तरह प्रथम बोलती फिल्म 'आलम आरा' के साथ ही भोजपुरी ने अपना स्थान हिंदी/हिंदुस्तानी फ़िल्मों में सुरक्षित कर लिया था। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
भोजपुरिया लोगों ने हिंदी फ़िल्मों के लिए इतने हिट गाने भोजपुरी में लिखे जिनके कारण ये हिंदी फिल्में सुपर हिट होने लगीं। सन 1982 में बनी हिंदी फिल्म 'नदिया के पार' के कुल आठ गीतों में सात गीत भोजपुरी में थे और सबके सब हिट। दरअसल हिंदी फिल्म में भोजपुरी गीत रखना उन दिनों एक फार्मूला बन गया था। सन 1931 से लेकर सन 1962 तक के तीस सालों में मराठी, गुजराती, असमिया, कन्नड़, पंजाबी, उड़िया, मलयालम में फिल्में बनी लेकिन भोजपुरी फ़िल्म का कहीं नामो-निशान नहीं था। इस बात का अफसोस भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भी था। उनके सुझाव पर बिहार के अभरक खदान के मालिक विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी ने भोजपुरी में फिल्म बनाने की प्रेरणा ली। उन्होंने हिंदी फिल्मों के अभिनेता नज़ीर हुसैन की मदद से भोजपुरी फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ाइबो' बना डाली। इस पहली ही फिल्म ने कई नए कीर्तिमान क़ायम कर दिए। हर शहर में जितने भी थिएटर थे, सबमें इस फिल्म को रिलीज किया गया जिसका रिकॉर्ड आज तक कोई भी दूसरी फिल्म नही तोड़ पाई है।
डॉ. राजेंद्र संजय ने पाठकों को कई नए विषयों की जानकारी दी है। जैसे विश्व में फिल्मों का जन्म कब, कहाँ, और कैसे हुआ? उस समय फिल्मों का रूप क्या था? वे कैसे बनाई जाती थी? कैमरे का इज़ाद कहाँ, कैसे हुआ? फिल्मों से उसका नाता कैसे जुड़ा? स्थिर फिल्मों के स्थान पर चलती फिरती फिल्मों की शुरुआत कैसे हुई? सिनेमा का जन्म वास्तव में एक चमत्कार से कम नहीं था।
वे फिल्में भारत में कब कैसे पहुंची? भारत में उन फिल्मों को देखकर प्रथम लघुचित्र किसने बनाई? मूक फिल्मों का दौर कैसे शुरू हुआ? उससे जुड़े महानुभाव कौन थे? फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता के कारण फिल्मों में व्यापारिकता भी प्रवेश करने लगी थी जिसके कारण सिनेमाटोग्राफ एक्ट यानि सेंसर बोर्ड की स्थापना करनी पड़ी। लेखक ने इन सारी बातों का मोहक अंदाज में मनोरंजक शैली में वर्णन किया है। भारत में भोजपुरी बोली का विस्तार कहाँ से कहाँ तक किस रूप में विद्यमान है। मैथिली मगही, वज्जिका, अंगिका, नेपाली आदि किस बोली में कितनी फिल्में बनी है। भोजपुरिया कला, संस्कृति और जीवन शैली का वर्णन लेखक ने संक्षेप में आकर्षक रूप में किया है। इस पुस्तक में सन 1931 से 1961 तक बनी कुल 173 हिंदी फिल्मों में भोजपुरी फिल्मी गीतों की डिटेल सूची भी दी गयी है। फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ाइबो' के बाद और कौन कौन सी यादगार फिल्में भोजपुरी में बनी, उनका लेखा जोखा लेखक ने भाव- भीने अंदाज़ में किया है। भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर की जीवनी भी संक्षेप में फोटो के साथ पुस्तक में वर्णित है।
डॉ. राजेंद्र संजय ने यह भी वर्णन किया है कि कैसे तीन चार फिल्मों के सफल निर्माण के बाद ही दुर्भाग्य ने भोजपुरी फिल्मों के दरवाजे पर दस्तक देना शुरू कर दिया और फिल्में फ्लॉप होने लगी। फिल्म उद्योग में अधकचरे लोगों का प्रवेश होने लगा। अनुभवहीन निर्माता, अधकचरे निर्देशक, तकनीशियन तथा लेखकों ने भोजपुरी फिल्मों का बंटाधार करना शुरू कर दिया, पैसे की खातिर। फिल्म उद्योग के जानकर लोगों ने पत्र - पत्रिकाओ के जरिये सावधान' लेख लिखकर चेतावनी देना शुरू कर दिया। गीतकर राममूर्ति चतुर्वेदी ने लिखा 'भोजपुरी फिल्मों की नाव मझधार में'। दूसरी हस्तियों ने भी सावधान किया- 'कला नहीं तो फिल्म नहीं' 'संभल जाओ नहीं तो सबकुछ से हाथ धोना पड़ जाएगा'। मगर फिल्में फ्लॉप होती गई। पद्मा खन्ना, कुमकुम, सुजीत कुमार, चित्रगुप्त जैसे महानुभावों ने भी सावधान किया मगर सन 1968 तक भोजपुरी फिल्मों का निर्माण शून्य हो गया। यह स्थिति सन 1968 से 1977 तक बनी रही।
भोजपुरी फिल्मों का दूसरा दौर सन 1977 में रंगीन भोजपुरी फ़िल्म 'दंगल' से शुरू हुआ जिसके निर्माता थे 'विदेशिया' फिल्म के निर्माता बच्चू भाई शाह, जिन्होंने सचमुच में दंगल नीति ली थी। भोजपुरी फिल्मों का दूसरा दौर जगमग रहा और सन 1989 तक रहा जिसमें कई हिट फिल्में बनी जिनकी संख्या बढ़ती ही गई। सन 1986 में 19 फिल्में बनीं जो आजतक का एक रिकॉर्ड है।
दूसरे दौर के उत्तरार्ध 1990 से 1999 तक में कुल 39 फिल्में ही बन पाईं। जबकि तीसरे दौर (2000-2008) में कुछेक नई उपलब्धियां देखने को मिली। शत्रुघ्न सिन्हा 'बिहारी बाबू' बनकर आए। रवि किशन हीरो बन कर छा गए। गायक मनोज तिवारी भी हीरो बन गए (2005)। सन 2006 में अमिताभ बच्चन 'गंगा' में अवतरित हुए। मिथुन चक्रवर्ती भी सन 2006 में 'शंकर भोले' में प्रकट हुए। सन 2008 मे एक नई भोजपुरी पत्रिका 'भोजपुरी वर्ल्ड' का प्रकाशन विनोद गुप्ता के संपादन में शुरू किया गया जिसके तत्वाधान में हर साल भोजपुरी फिल्म्स अवार्ड की भी शुरुआत की गई।
लेखक ने शुरू से अंत तक पाठक के साथ बातचीत की शैली में पूरे इतिहास को प्रस्तुत किया है जो अपने आप में एक अनुठा प्रयोग है। पाठक को लगता ही नहीं कि वह अकेला है। यह पुस्तक 'भोजपुरी फिल्मों का इतिहास' निस्संदेह हर संग्रहालय के लिए एक धरोहर साबित होगी। चार रंगों में प्रकाशित यह पुस्तक अत्यंत नयनाभिराम है।

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