मुम्बई। मराठी में इन दिनों विश्वास पाटील द्वारा लिखी जा रही छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर आधारित उपन्यास श्रृंखला ‘महासम्राट’ की धूम मची है। इस उपन्यास श्रृंखला का दूसरा खंड ‘रणखैंदळ’ 15 मई को प्रकाशित होने जा रहा है। पुणे के मेहता पब्लिकेशन हाउस के अखिल मेहता इस ग्रंथ के प्रकाशन की जोरदार तैयारियों में लगे हैं।
छत्रपति के जीवन काल पर बाजार में तमाम दृष्टिकोणों से लिखी अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। लेकिन श्री पाटील ने अपने शानदार लेखन कौशल और बीते तीस बरस के शोध के आधार पर एक विशिष्ट और विलक्षण कृति रची है, जिसने साहित्य रसिकों तथा पाठकों को विस्मित कर दिया है। बीते पांच-छह महीनों में मराठी में इस उपन्यास श्रृंखला की पहली कड़ी ‘झंझावात’ की तीस हजार से अधिक प्रतियां समाप्त हो चुकी हैं। यह उपन्यास मराठी के समानांतर हिंदी (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली), कन्नड़ (सपना, बंगलुरू) और अंग्रेजी (वेस्टलैंड, दिल्ली) भाषाओं में प्रकाशित होकर बेस्ट सेलर हो चुका है।
‘महासम्राट’ के दूसरे भाग ‘रणखैंदळ’ उपन्यास की शुरुआत नेताजी पालकर द्वारा बीजापुर के अजेय समझे जाने वाले किले के चारों तरफ खड़ी मजबूत दीवार पर जोरदार हमले के साथ होती है। 1685 में औरंगजेब ने अपनी तीन लाख की फौज लेकर बीजापुर पर आक्रमण किया था और वहां उसकी विशाल सेना करीब बारह-तेरह महीनों तक इस अपराजेय दीवार से अपना सिर फोड़ती रही। मगर नाकाम रही। जबकि इससे पहले 10 नवंबर 1659 को जब प्रतापगढ़ की तलहटी में शिवराय ने अफजल खान को चीर दिया, तो उसके बाद राजा के आदेश पर चौथे ही दिन नेताजी पालकर ने मात्र पचास हजार की फौज के साथ बीजापुर के अभेद्य दरवाजे को इतनी जबर्दस्त टक्कर मारी थी कि वह ध्वस्त हो गया। शहर में हाहाकार मच गया। किसी महाकाव्य को शोभित करने वाली कल्पना से बढ़कर, यह सत्य घटना है। ‘पानीपत’ के लेखक की कलम से रचे इस प्रसंग को पढ़ते हुए निश्चित ही आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे।
इसके अतिरिक्त यहां आपको मिलेगा कि पन्हाल के घेरे में शिवराय एक सौ तैंतीस दिनों तक कैसे अटके रहे। उन्होंने सह्याद्री के अत्यंत कठिन जंगली रास्तों को किसी बहादुर किसान की तरह, धैर्यपूर्वक डेढ़ दिन में घोड़खिंड और विशालगढ़ के बीच करीब साठ किलोमीटर की दूरी पैदल चलते हुए कैसे तय की। इस दूरी में राजा ने घोड़े या पालकी का प्रयोग नहीं किया। कारण यह कि जंगल का ये रास्ता इतना दुरूह है कि आज भी इस राह पर घोड़ा चल नहीं सकता। पालकी यहां से नहीं गुजर सकती। यहां पालकी जानबूझकर सिर्फ शिवा काशिद को ढोने के लिए इस्तेमाल की गई थी। लेखक श्री विश्वास पाटील ने खुद उस अनुभव से गुजरने के लिए बीते अनेक वर्षों में, भरी बरसात के दिनों में इन रास्तों पर पैदल यात्रा की।
हिंदवी स्वराज्य के लिए पन्हाल के जंगलों में आत्माहुति देने वाले रणवीर शिवा काशिद के संग पहले इस्लामी शहीद सिद्दी वाहवाह, साथ ही पावनखिंड को पवित्र करने वाले बाजीप्रभु और फुलाजी की वीरता की कहानी इस खंड में है। मराठा इतिहास में प्रसिद्ध धनाजी और संताजी से पूर्व धनाजी जाधव के पिता शंभूजी जाधव ने भी पावनखिंड में युद्ध करते हुए कैसे अपने प्राणों की बाजी लगा दी, शिवकाल के ऐसे अनेक अभूतपूर्व प्रसंग और विलक्षण व्यक्ति चित्र श्री पाटिल अपने शोध-संधान के बल पर पाठकों के सामने लाए हैं।
शिवापट्टनम से पर्नाल पर्वत तक शिवराय के बहादुर सहकर्मियों के घोड़ों की दौड़, वेंगुर्ला-राजपूर, जैतापुर की तरफ सागर-खाड़ियों के किनारे बिछी रण-रंग की जमात, स्वर्णनगरी सूरत में शिवराय द्वारा की गई महालूट, हिंदवी स्वराज के हित के लिए शिवराय और उनके पिता के बीच बनी दूरियां तथा बाईस वर्षों तक एक-दूसरे से दूर रहने के बाद जेजुरी के गढ़ पर खंडेराया के प्रांगण में हुई उनकी विलक्षण भेंट। उंबरखिंडी के जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों में छुपे शिवराय के मात्र दो हजार सैनिकों ने किस तरह कारतलब खान और रायबागिनी के 26 हजार फौजियों की धज्जियां उड़ाई और कैसे उन्हें अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया, ऐसे महापराक्रम की अनेक सत्य और अद्भुत घटनाएं ‘रणखैंदळ’ उपन्यास में एक अखंड विलक्षण महायुद्ध की तरह पृष्ठ-दर-पृष्ठ दर्ज हैं।
5 नवंबर 1664 को शिवराय ने जीता कुडाल का महायुद्ध। इसमें उन्होंने बीजापुर के तत्कालीन वजीर खवासखान को अक्षरशः भागने पर मजबूर कर दिया। खेम सावंत के दस हजार फौजियों का पूरी तरह सफाया किया। पिता की मृत्यु के वर्ष भर के अंदर, शत्रु के साथ मैदान में अपने विरुद्ध उतरे सौतेले बंधु व्यंकोजीराजा को देखने के दुख और दुर्दैव का भी उन्होंने सामना किया। इसके बाद मात्र बीस दिनों के भीतर उन्होंने सागर की कोख में शिवलंका कहलाने वाले सिंधुदुर्ग की नींव रख दी। सिकंदर महान और नेपोलियन बोनापार्ट जैसे संसार को जीतने वाले वीरों की तरह शिवराय में भी कितनी जिद और ऊर्जा थी।! इन्हीं महान लोगों की तरह शिवराय भले ही एक इंसान थे मगर अकेले ही नौ लोगों के बराबर काम करते थे। ऐसे बेजोड़ शिवराय के व्यक्तित्व का विस्तृत अनुसंधान श्री पाटिल ने अपनी लेखनी से किया है।
‘महासम्राट’ के पहले खंड ‘झंझावात’ में उपन्यासकार श्री पाटील ने हिंदवी स्वराज के स्वप्न की संकल्पना करने वाले शिवराय के महापिता शहाजीराजे भोसले और मातोश्री जीजाऊसाहेब के विराट व्यक्तिचित्र उकेरे हैं। उन्होंने औरंगजेब के पिता शाहजहां और दादा जहांगीर जैसे दो मुगल बादशाहों के लाखों सैनिकों के विरुद्ध शहाजीबाबा की खुली तलवार के उस पराक्रम को पाठकों के सम्मुख रखा, जिसके इतिहास में दर्ज होने के बावजूद निरंतर नजरअंदाज किया गया। जिजाऊसाहेब के पिता समेत परिवार के चार प्रमुख पुरुषों की हत्या करके निजाम ने एक प्रकार से कैसे उनका मायका उजाड़ दिया था। उसी समय बीजापुर सल्तनत ने उनके ससुराल, पुणे की जागीर पर कैसे गधों से हल चलवा दिए। उसी बरस पड़े भीषण अकाल ने कैसे प्रजा को निचोड़ कर रख दिया। ऐसे बेहद कठिन दिनों में जीजाऊसाहेब के गर्भ में शिवराय पल रहे थे। इन आसमानी और सुल्तानी संकटों के बीच शहाजीबाबा और जीजाऊसाहेब ने कैसे शिवराय का पालन-पोषण किया, उनके व्यक्तित्व को गढ़ा, यह सारा 1620 से 1659 का चालीस बरस का कालखंड ‘झंझावात’ में पाठकों को बेहद पसंद आया है। इसीलिए इस उपन्यास श्रृंखला के द्वितीय खंड की पाठकों की तरफ से बारंबार मांग की जा रही थी।
‘महासम्राट’ के दूसरे खंड के लिए आतुर-उत्सुक पाठकों के संग संपूर्ण भारतवर्ष में स्फूर्ति और उत्साह भर देने वाला ‘रणखैंदळ’ मई महीने के मध्य तक उपलब्ध होने को तैयार है। प्रथम खंड की तरह ही यह भी शाश्वत कथा यात्रा के प्रवाह में शामिल होगा, यह विश्वास है।
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